Wednesday, December 30, 2009

हमारी धरती पर एलिअन्स है- जेट्रोफ़ा




14, फ़रवरी 2004 को सहारा समय अखबार में प्रकाशित
कभी अपने कृषि वैज्ञानिकों व सरकार के तमाम दावों से प्रभावित होकर मैने एक लेख लिखा था, जो पैरोकारी कर रहा है जेट्रोफ़ा (Jatropha curcus) यानी कथित रतनजोत का। किन्तु भारत की भूमि पर यह एक इनवैसिव प्रजाति है और इसका वस्तविक घर दक्षिणी अमेरिका है। रतनजोत के नाम से प्रचारित कर हमारे किसानों को आकर्षित करने का प्रयास किया गया। जबकि भारतीय रतनजोत (Arnebia nobilis) एक आयुर्वैदिक गुणों से परिपूर्ण औषधीय पौधा है। जबकि ये कथित जेट्रोफ़ा न जाने कितने बच्चो, जानवरों का काल बन चुका है और हमारी स्थानीय वनस्पतियों के लिए खतरा भी।
जिस मकसद से यह विदेशी पौधा हमारी धरती पर लाया गया था, उसका यथार्थ में कोई परिणित नही हो पायी न तो जेट्रोफ़ा के तेल से रेल चली और बस, किसान भी ठगे रह गये, उनके खेतों मे आज भी ये वनस्पति अपना वास्तविक वजूद तलाश रही है और किसान अपना आर्थिक लाभ किन्तु दोनों ठगे से प्रतीत हो रहे है।
वैसे धरती पर कूछ भी विदेशी-स्वदेशी नही होता किन्तु इतना तो अवश्य है कि कौन सा जीव या वनस्पति दूसरी भौगोलिक व पर्यावरणीय अवस्थाओं में अपने आप को ढ़ाल पायेगा!

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी

क्या नौ गज़ के आदमी के बारे में सुना है आप ने!




नौ गज़ यानी नौ यार्ड, लम्बाई की यह मापन य़ुनिट यार्ड का उर्दू में गज़ है जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में खूब प्रचलित रही और आज़ भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह मापन इकाई जनमानस में प्रचलित है।
हां तो अब यदि हम नौ गज़ या नौ यार्ड को मीटर में तब्दील करे तो नौ गज़= 8.2296 मीटर!
मानव इतिहास व विज्ञान में इतने लम्बे आदमी का कोई प्रमाण नही मिलता यदि मुझसे कोई चूक हो रही हो मानव विज्ञान के इतिहास के विषय में तो अवगत अवश्य कराइये गा।
खीरी जनपद के दुधवा टाइगर रिजर्व में घने जंगलों के मध्य एक मज़ार है जो आदमकद बिल्कुल नही है बल्कि आठ-नौ मीटर लम्बी है। तो फ़िर कौन है दफ़न इस कब्र में।

Tuesday, December 29, 2009

गुलामी की यादे समेटे एक खण्डहर





12 मार्च, 2006 को दैनिक हिन्दुस्तान लखन्ऊ में मेरा यह एतिहासिक लेख प्रकाशित हुआ।



ये कुछ संस्मरण है मेरे अपने लोगों के जिनकी नज़र से देखा है॥ ये वो दौर था जब  कोई राजा नही था और न नवाब,   जो अंग्रेजों की नौकरी कराते थे। इन नौकरों को गोरों ने राजा, महाराजा, नवाब आदि के ख़िताब का एक रुक्का (कागज़) दे रखा था।
उस सेकंडरी शासक कैसे-कैसे जुल्म करते थे जनता से और कैसे रहमदलाली और चापलूसी करते थे गोरी चमड़ी का इसका बयांन तो नही करूंगा। किन्तु उनके उन रुतबों का और राज भय का जिक्र जरूर करूंगा, जिनके कारण जनता को कितनी तकलीफ़ उठानी पड़ती थी।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी

जान जोखिम में






3, जुलाई 2004 को सहारा समय में प्रकाशित

दुधवा के बाघ, तेन्दुए अपने अस्तित्व की लड़ाई में, हारते नज़र आ रहे है, कभी रोड एक्सीडेन्ट, कभी शिकारियों से तो कभी सरकारी इंतजामियां से! जिन्हे कभी-कभी मज़बूर हो जाना पड़ता है इस कृत्य के लिए। कुछ ऐसा ही हुआ था, सन २००४ में एक तेन्दुए को वन अधिकारियों ने "आपरेशन सूर्यास्त" चलाकर मार दिया, मीडिया में चर्चा हुई, वाहवाही का सबब बनी एक जानवर की मौत और अतीत के शिकार जैसे बहिसयाना शौक की भी पूर्ति हो गयी आज के तमाम कड़े नियमों के बावजूद। मैन-ईटर का सर्टीफ़िकेट दो और मार दो। तबसे तमाम हादसे होते चले आ रहे है, कभी कोई नवाब आ कर बाघ को मार देता है, और कभी सरकारी अमला या उसकी आड़ मे कुछ पुराने शिकारी भी ये शौक पूरा कर लेते है, । आदमखोर को मारने या पकड़वाने के सहयोग की आड़ में।
जानवर को अखबार व चर्चा में पहले खूंखार, दहशतगर्द व दरिन्दा बनाया जाता है फ़िर उसके साथ छेड़-छाड़ शुरू होती, और कुछ दिनों या महिनों के बाद उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या फ़िर किसी चिड़िया घर(कसाई-बाड़े) में आजीवन कैद। असल समस्याओं से परदा उठने का नाम ही नही लेता।
 मनुष्य की बलात्कारी दृष्टि,  जंगलों व उनमें रहने वाले  जानवरों को लूट-घसोट लेना चाहती है। इस प्राकृतिक संपदा को.............
जबकि सवाल यह है कि हम जंगल में अपना गैर-वाज़िब दखल बढ़ाते जा रहे है और जब कोई जानवर भटक कर मानव आबादी में घुसता है। जिसके पास कोई भौगोलिक या राजनैतिक सीमाओं का नक्शा नही होता,  तो हम हल्ला मचाते है....नतीज़ा। अफ़सरों पर बढ़ता दबाव, नेताओं का और जनता का, क्योंकि ये दोनों एक ही बूचड़ खाने के लोग है, नेता इन्हे रोज़ काटते है और ये कटते है लेकिन इस बात की उन्हे कोई फ़िक्र नही बस फ़िक्र हो जाती है कि ये जानवर हमारे इलाके में कैसे आया। जबकि ये बात ये लोग याद करना नही चाहते कि ये इन्ही जानवरों के घरों को तबाह कर खेत, और अपनी अट्टालिकायें बनाये हुए है।
इन जानवरों के साथ रहने का सबूर अगर नही आया, तो जल्द ही हमारा वज़ूद डगमगाना शुरू-ए हो जाएगा। फ़िर...............
०३ जुलाई २००४ को प्रकाशित मेरा यह लेख, उन्ही निर्मम दिनों का है जब इस तेन्दुए को मौत के घाट उतारा गया जो आदमखोर हो गया था। और इसकी वज़ह थे सिर्फ़ वो लालची इन्सान जो धन व ज़मीन के लालच में वैध-अवैध जमीनों के खातिर जंगल क्या नदी के मध्य में भी कुटी छवा ले। .........कुटी बह जायेगी मुवावज़ा तो फ़िर भी मिलेगा !!!!!!
आज खेरी जनपद के बाघ अब दुधवा टाइगर रिजर्व में सिमट कर रह गये है। उनकी खाद्य श्रंखला प्रभावित हो चुकी है और आवास भी, बाढ़ जैसी विभीषिकाओं ने बचा खुचे हालातों को बेलीगा़रद कर दिया, बाढ़ को अब प्राकृतिक आपदा नही कहा सकता क्योंकि अब यह मानव जनित है।...............

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी

बदहाल होता एक एतिहासिक पुस्तकालय




31, जनवरी 2004 को सहारा समय में प्रकाशित

मेरा यह लेख 31,जनवरी सन 2004 को सहारा समय साप्ताहिक अखबार में प्रकाशित हुआ। इस लेख का श्रेय मै सुश्री पाल कार्टर को देता हूं जिन्होंने लन्दन से मुझे विलियम डगलस विलोबी के बारे में जानकारी प्राप्त करायी।
विलोबी सन1920 ईस्वी में डिप्टी कमिश्नर थे जिला खेरी के, इनकी हत्या 26 अगस्त सन 1920 ई0 को कर दी गयी।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी

Monday, December 28, 2009

ऐसा है ग्रामीणों का पक्षी प्रेम


Posted by Picasa३ अगस्त सन २००३ में मेरा ये लेख सहारा समय साप्ताहिक अखबार में प्रकाशित हुआ। ये मेरे जनपद का अतुलनीय सामुदायिक पक्षी विहार है जिसे ग्रामीण संरक्षित करते हैं। - कृष्ण कुमार मिश्र

नुक़ूश-ए-कतरन

हिन्दी ब्लाग जगत में मेरा एक प्रयास, जिसमें मैं अपनी प्रकाशित कृतियों को इस वेब पेज पर इकठ्ठा करूगा।
यहां एक सवाल उत्पन्न हुआ कि आखिर इस जगह का नाम क्या होगा? सवाल तलाशने में मुझे ४८ घंटे लग गये! जो पहला जवाब आया वो था "चिफ़ुरियां" बूढ़े नीम के तने से छूटती चिफ़ुरियां जिन्होंने धरती के हर मौसम को जिया-झेला और फ़िर छूटने लगी, जीवन की डोर से,  जिसे विज्ञान अपने तरीके से परिभाषित करता है और अध्यात्म अपने तरीके से। वो नीम के शरीर का मृत अंश जिसे मेरे गांव में चिफ़ुरियां कहते थे यानी लकड़ी का पतला, छोटा और बेढ़ंगा टुकड़ा भी मानुष के त्वचा पर उग आई फ़ुन्सियों पर घिस कर लगाने के काम आता है और यह राम बाण हुआ करता था त्वचा रोगो के लिए। किन्तु अब न तो बूढ़े वृक्ष बचे है और न ही उनकी वों चिफ़ुरियां। अंग्रेजी के स्क्रैप की जगह यह शब्द बिल्कुल माकूल लगता है मुझे, कमेन्ट की जगह भी और अखबार की कतरन के लिए भी।
यहां एक दिक्कत आ गयी कि इस शब्द से हो सकता है तमाम लोग नावाकिफ़ हो। सो मैने अपने बेव पेज जो अखबार की कतरनों की तरह कपड़े की कतरनों से सुसज्जित है को देखकर पैबंद.........कतरन .....आदि-आदि, अब मैने सोचा कि चलिए इस अन्तर्जाल की खाली जगह को अपने लेखों की कतरनों से सजाया जाय, यानी पैबन्द्कारी की जाय और अब इसका नाम रखा "पैबन्द-ए-कतरन"।
किन्तु अभी भी मेरा अति घुमक्ड़ मन चकरघिन्नी लगा रहा था कि यार पैबन्द कोई अच्छी चीज नही, क्यों अन्तर्जाल की इस जगह को खराब करे पैबन्द यानी प्योंदें लगाकर.......!
तो मशविरा हुआ और मेरे एक बुजुर्ग मित्र सिद्दीकी साहब ने मुझे दो नाम सुझाए, अक्श-ए-कतरन और नुकूश-ए-कतरन।
मुझे नुकूश-ए-कतरन रास आया। अतंत: अब इस प्यारी-न्यारी अन्तर्जालीय स्थल का नाम नक़ूश-ए-कतरन है जो कि मुस्तकिल व मुकम्मल है।
अब मैं अपनी कतरनों से खूबसूरत नुक़ूश बनाता रहूंगा। निरन्तर...........अनवरत।